Sunday, October 26, 2014

गुरू तेग बहादुर जी का बलिदान




  गुरू तेग बहादुर जी का बलिदान

यह गाथा है-वीर योद्धा, कुशल संगठक, राष्ट्र नायक और महान साधक नवें गुरु तेगबहादुर की।जिन्हे सिक्खो के नौवे गुरू के रूप में जाना जाता है। उनके बलिदान ने हमें हिन्दुत्व की साधना और धर्म रक्षा के लिये प्रेरित किया । 
छठे पातशाह गुरू हरिगोविन्द की दूसरी पत्नी नानकी के दूसरे पुत्र त्यागमल (तेगबहादुर) का जन्म वैशाख कृष्ण पंचमी के दिन अमृतसर में हुआ । वर्ष था - कलियुग संवत् (युगाब्द) 4723 अर्थात विक्रमी संवत् 1678 (सन् 1621)। 
चार वर्ष की आयु में त्यागमल की शिक्षा शुरू हुई । शीघ्र ही हिन्दी व संस्कृत के साथ अरबी और फारसी में भी उन्होंने निपुणता प्राप्त कर ली । गीता, महाभारत, उपनिषद, वेद, पुराण आदि भी उन्होंने पढ़ डाले। संगीत में भी उनकी रुचि थी, काव्य रचना कर स्वयं ही राग बनाना व मधुर स्वरों में गाना उन्हें बहुत प्रिय था । घुड़सवारी, धनुर्विद्या, मल्ल विद्या, तलवारबाजी आदि का भी वे अभ्यास करने लगे थे। कुछ ही वर्षों में वे इन सब में पारंगत हो गये।
                 बारह वर्ष की आयु में त्यागमल का विवाह भाई लालचन्द की पुत्री गूजरी से हो गया। अपने पिता के साथ वे कीरतपुर साहिब में ही रह रहे थे तथा शस्त्र व शास्त्रों के साथ आध्यात्मिक साधना भी कर रहे थे । अपने अंत समय का आभास पाकर गुरू हरिगोविन्द ने अपने सबसे बड़े पुत्र बाबा गुरदित्ता के 14 वर्षीय पुत्र हरिराय को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और तेग बहादुर को अपने ननिहाल बकाला (अमृतसर के पास) जाने को कहा । माता जानकी और पत्नी गूजरी के साथ तेगबहादुर बकाला आ गये । बीस सालों तक बकाला के पास एक गुफा में उन्होंने घोर तपस्या की । दिन में केवल एक बार वे थोड़ा सा आहार लेते थे । इस बीच गुरू हरिराय 17 वर्षों तक तथा उनके पुत्र गुरु हरिकृष्ण तीन वर्षों तक गुरु गद्दी पर विराजमान रहे । 
चेचक के कारण आठ साल के गुरु हरिकृष्ण दिल्ली में परलोक सिधार गये । महाप्रयाण के पूर्व उन्होंने अपने हाथ में एक नारियल तथा पॉंच पैसे लिए तथा बाबा बकाले कहा । तेगबहादुर उस समय 43 वर्ष के थे तथा बकाला में साधना व आत्मचिंतन में लीन थे । गुरू हरिकृष्ण ने उत्तराधिकार का नारियल उन्हें ही देने का निर्देश दिया था । अतः समाज के सभी प्रमुख लोगों ने मिलकर नवम गुरु के रूप में तेगबहादुर की घोषणा कर दी । 
                औरंगज़ब का कहर उन दिनो कश्मीरी पंडितो पर बरस रहा था।कश्मीरी पण्डित आनन्दपुर साहिब पहुँचे और समस्या बताई कि प्रतिदिन हजारों हिन्दुओं की हत्या, मुसलमान बनाने के लिए किये जा रहे अत्याचार तथा मंदिरों को ध्वस्त करने की घटनायें गुरू दरबार में बता कर पण्डितों ने गुरु जी से सुरक्षा देने की गुहार की । गुरू तेगबहादुर का तो जीवन-कार्य ही अपने हिन्दू धर्म की रक्षा करने का भगीरथ प्रयत्न था । सारी बातें सुन कर वे सोच में पड़ गये । कुछ समय के मनोमन्थन के बाद वे बोल उठे- "इस समय देश और धर्म की रक्षा का एकमात्र उपाय किसी महापुरूष का बलिदान है ।'

उनका नौ वर्ष का पुत्र गोविन्दराय पास ही खड़ा था । उसने तुरन्त कहा, ""पिताजी इस पवित्र कार्य के लिए आप से बढ़ कर कौन महापुरूष है ।"" गोविन्दराय की बात सुनते ही गुरू दरबार में सन्नाटा किन्तु गुरु तेगबहादुर के मुखमण्डल पर अद्भुत तेज छा गया । अपने पुत्र को शाबाशी देकर उन्होंने कश्मीरी पण्डितों से कहा- "देवताओं ! जाकर औरंगजेब से कह दो कि यदि तेगबहादुर को मुसलमान बना लिया तो बाकी सब मुसलमान बन जायेंगे ।' यह कह कर गुरुजी दिल्ली जाने की तैयारी करने लगे । धन्य हैं पिता को बलिदान की प्रेरणा देने वाले पुत्र और धन्य हैं गुरु तेगबहादुर जैसे पिता । ऐसे पिता-पुत्र भला पुण्यभूमि भारत के अतिरिक्त और कहॉं जन्म ले सकते हैं ।दिल्ली के चांदनी चौक में उसी स्थान पर बना हुआ गुरुद्वारा शीश गंज आज भी हमें गुरु तेगबहादुर के बलिदान (शीशदान) की याद दिलाता है ।